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डॉ गुलरेज़ शेख द्वारा
“नस्ल” शब्द सुनते ही कल्पना में जो चित्र निर्मित होता है वह एक श्वेत तथा अश्वेत व्यक्ति का है जिससे हम भारतवंशीयों का क्या लेना-देना? परंतु यदि श्वेत, अश्वेत, मंगोल, एशियाई, रेड-इंडियन आदि ही नस्लें हैं, तो हम भारतवंशी क्या हैं? जितना जटिल यह प्रश्न प्रतीत होता है उससे कई गुना सुलभ इसका उत्तर है। यदि सरल भाषा तथा एक शब्द में परिभाषित किया जाए तो यह नस्ल “हिंदू” है।
परंतु यह विडंबना है कि पश्चिम का अंधा अनुसरण करने की होड़ में हम न केवल अपनी नस्ल को भुला बैठे अपितु इस विषय में चर्चा क्या, विचार भी करने की चेष्टा नहीं करते।
पश्चिम की श्वेत नस्लों द्वारा संसार की अन्य नस्लों के संग इतने व्यापक अन्याय किये गए कि उनकी चर्चा तक न हो इस उद्देश्य से पश्चिमि देशों ने समूचे विश्व में ऐसा वातावरण निर्मित किया है कि मानो नस्ल शब्द का उपयोग ही पाप हुआ। और इस सब के मध्य यदि किसी नस्ल को सर्वाधिक क्षति पहुँची है तो वह नस्ल “हिंदू” ही है।
जिस समय पश्चिम न केवल स्वयं की नस्ल पर चर्चा में व्यस्त था बल्कि वैश्विक राजनैतिक मानचित्रों को भी स्वयं की नस्ल के लाभ तथा अन्य नस्लों हेतु दूरगामी समस्याओं को जन्म देने की दृष्टि से परिभाषित कर रहा था, उस समय बेचारी हिंदू नस्ल अंग्रेज़ों की अाधीन थी और स्वतंत्रता पश्चात् अंग्रेज़ी ख़ुराफ़ात की।
श्वेत नस्ल द्वारा स्वयं के लाभ हेतु न केवल अन्य नस्लों का शोषण किया गया बल्कि जहाँ-जहाँ शासन किया अपने अाधीन देशों का नवनिर्माण नसलीय आधार पर कृत्रिम प्रतिमान से किया ताकि ये नस्लें सदा के लिये आपस में लड़ती रहें या स्वयं की नस्ल को भुलाकर गोरों का अनुसरण करती रहें। दोनों ही स्तिथियों में लाभ गोरों का ही है।
यहाँ यह तथ्य भी स्मरण से परे नहीं होना चाहिये कि मानवीय नस्लें स्थान (भूमि) तथा संस्कृति का उत्पाद हेती हैं। यदि दोनों में से एक भी कारक को शून्य कर दिया जाए तो परिणाम प्रश्नचिंह ही होगा।
हम देखते हैं कि भारत विखंडन के परिणामस्वरूप जन्मे अफ़ग़ानिस्तान, पाकिस्तान, बांग्लादेश, नेपाल, बर्मा तथा श्रीलंका में निरंतर रूप से कुछ न कुछ राष्ट्रीय समस्याओं का चक्र चलता ही रहता है। प्रश्न उत्पन्न होता है क्यों? इसका उत्तर भी नस्ल ही में छिपा है। चूँकि इन सभी देशों के वासी हिंदू नस्ल के हैं, अत: पृथक-पृथक इन देशों का अस्तित्व ही अप्राकृतिक है, जो निरंतर रूप से समस्याओं का कारक बनता है।
यदि वैश्विक परिदृश्य पर भी प्रकाश डालें तो यूरोप द्वारा की ख़ुराफ़ातों का फल आज भी करोड़ों लोग भोग रहे हैं। उदाहरण प्रथम विश्व युद्ध के पूर्व, वर्तमान सीमाओं वाले ईराक़ का कोई अस्तित्व ही नहीं था। परंतु कुर्दों के क्षेत्र तथा बसरा के संयुक्तिकरण द्वारा कृत्रिम रूप से निर्मित ईराक़ की वर्तमान स्थिति से हर कोई अवगत है। वहीं ईरान जो कि उस कालखंड में फ़ारस था, में कुर्दों के एक क्षेत्र का विलय तथा यही ख़ुराफ़ात तुर्की में आज भी समान मज़हब के अनुयायी परंतु पृथक नस्ल वाले कुर्द, तुर्क, फ़ारसी तथा अरबीयों (बसरी) के मध्य सतत हिंसा का मूल परंतु अदृश्य कारण है।

वैसी ही स्तिथि बाल्कन (मध्य यूरोप) की नस्लों की है जिन्हें पश्चिमि यूरोपियों द्वारा सदा ही स्वयं से निचला समझा गया, तथा एडाल्फ हिटलर ने तो अपनी आत्मकथा (मेन कॉम्फ) में तो हर स्थान पर इन नस्लों का दुर्भावनापूर्ण उल्लेख किया, उनकी भूमि (बाल्कन) इतिहास के पन्नों से लेकर गत दिनांक तक भी शांत नहीं है, जिसका मुख्य कारण पश्चिमि तथा पूर्वी यूरोप की नस्लीय शक्तियों के मध्य इन भूमियों पर नियंत्रण की मंशा के चलते वहाँ राजनैतिक अशांति को जन्म देने की योजना स्वरूप अप्राकृतिक तथा कृत्रिम नस्लीय आधार पर इन देशों का विभाजन तथा संयुक्तिकरण है। उदाहरण के रूप में चेक गणराज्य तथा स्लोवाकिया के अप्राकृतिक संयुक्तिकरण से जन्मा चेकोस्लावेकिया जो बाद में पुन: विभाजित होकर अपने मूल रूप में स्थापित हुआ, बोस्निया-हर्जेगोविर्ना तथा कोसोवो, पश्चिम तथा पूर्वी जर्मनी, यूक्रेन की अप्राकृतिक सीमाएँ जहाँ आज भी मानव त्रासदियों का अंबार है।
यदि यूरोप से परे हम अपने पड़ौसी चीन पर भी प्रकाश केंद्रित करें तो चीन का अशांत प्रांत जिन-जियाँग दृष्टि में आता है। यहाँ की अस्थिरता की प्रष्ठभूमि केवल पंथ आधारित ही नहीं अपितु नस्ल आधारित भी है। उधूर तथा चीनियों के मध्य संघर्ष की जड़ भी नस्ल में है, क्योंकि उधूर नस्लीय रूप से चीनी नहीं हैं और न ही उनकी भाषा चीनी है। यही कारण है कि पुराने अंग्रेज़ी साहित्य में इस क्षेत्र को “चीनी तुर्किस्तान” की संज्ञा दी जाती थी । [जो भी कारण हो, पर जहाँ कहीं भी हिंसा है वह कड़े शब्दों में निंदनीय है]।
परंतु यदि हम दूसरों को छोड़ केवल अपनी हिंदू नस्ल पर ही ध्यान केंद्रित करें, तो यह तथ्य स्थापित होता है कि अंग्रेज़ों द्वारा ख़ुराफ़ात से कहे गए भारतीय उपमहाद्वीप, जो कि वास्तव में हिंदू राष्ट्र है, पर पूर्ण शांति स्थापना हेतु सर्वोपरी है इस “हिंदू नस्ल” का एक राष्ट्र के रूप में स्थापित होना, जिसकी व्याख्या हम सरल भाषा में “अखंड भारत” के रूप में करते हैं।
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