— ज्ञानेंद्र पाण्डेय द्वारा
भारत में गठबंधन की राजनीति को लेकर शायद कोई भी राजनीतिक दल गंभीर नहीं है और सिर्फ अवसर का लाभ लेने की गरज से ही गठबंधन की राजनीति की जाती रही है। गठबंधन की राजनीति स्थायी नहीं होती और मतलब निकल जाने पर गठबंधन हवा-हवाई हो जाता है। आजादी के बाद सातवें दशक के मध्य में कांग्रेस के खिलाफ विपक्ष का पहला गठबंधन संयुक्त विधायक दल ने नाम से लामबंद हुआ लेकिन भी अधिक समय तक टिका नहीं रह सका। उन्नीस सौ इकहत्तर का लोक सभा चुनाव आते-आते यह विपक्षी गठबंधन छिन्न-भिन्न हो गया।
तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी द्वारा जून 1975 में आपात काल की घोषणा के पीछे भी गठबंधन का महत्वपूर्ण योगदान था। आपातकाल की उन्नीस महीने की अवधि में विपक्ष के तमाम बड़े नेता जेल में एक साथ रहे और जनता पार्टी के रूप में कांग्रेस के खिलाफ एक मजबूत विकल्प खड़ा करने में कामयाब हुऐ। उन्नीस सौ सतहत्तर (1977) में एक बार फिर कांग्रेस के खिलाफ विपक्ष एकजुट हुआ। कहीं न कहीं इसके पीछे इंदिरा गाँधी के खिलाफ लोक नायक जय प्रकाश नारायण द्वारा चलाए गए राष्ट्रव्यापी आन्दोलन की भी बड़ी भूमिका रही।
पहली बार देश में गैर कांग्रेसी सरकार तो बनी लेकिन जनता गठबंधन में शामिल भारतीय जनसंघ (जिसे अब भारतीय जनता पार्टी कहा जाता है), भारतीय लोक दल, संगठन कांग्रेस और कांग्रेस फॉर डेमोक्रेसी और ऐसी ही तमाम छोटी-बड़ी पार्टियों और उनके नेताओं के निस्वार्थों के चलते यह गठबंधन भी ज्यादा समय तक नहीं चल सका और 1980 में लोक सभा के मध्यावधि चुनाव भी हो गए, नतीजा ये हुआ कि जिस कांग्रेस को सत्ता से बाहर रखने के मकसद से पूरा विपक्ष एकजुट हुआ था वही कांग्रेस पूर्ण बहुमत के साथ विपक्ष की एकता को धत्ता दिखा कर फिर से सत्ता में वापस आ गई।
सत्ता पक्ष के खिलाफ विपक्ष का संभवतः यह सबसे बड़ा गठबंधन था लेकिन यह प्रयोग भी सफल नहीं रहा यहीं नहीं इस प्रयोग की असफलता ने कांग्रेस को ईतना मजबूत भी बना दिया था कि उसे लम्बे अरसे तक किसी भी पार्टी के साथ समझौता करने की जरूरत ही नहीं पड़ी। तब कांग्रेस को यह लगता था कि उसे किसी से समझौता करने की जरूरत नहीं है, जिसे गरज हो वो कांग्रेस की शर्तों पर समझौता करें।
आज कुछ-कुछ वैसी ही स्थिति सत्तारूढ़ भाजपा की भी हो गई है, केंद्र के साथ ही देश के ज्यादातर राज्यों में भी भाजपा या उसके सहयोगी दलों की ही सरकारें हैं इसलिए सत्ता के मद में चूर यह पार्टी अब अपने सहयोगी दलों से दूरी बनाने की दिशा में आगे बढ़ रही है। इस लिहाज से वामपंथी मोर्चे को अपवाद कहा जा सकता है क्योंकि इस मोर्चे के चार प्रमुख घटक दल-भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी, मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी, फॉरवर्ड ब्लाक और रिवोल्यूशनरी सोशलिस्ट पार्टी अब तक एकजुट हैं।
इस वामपंथी एकता के भी कई कारण हैं। सबसे बड़ा कारण तो यही है कि एक त्रिपुरा को छोड़ कर कहीं भी इस मोर्चे की सरकार नहीं है। दूसरा बड़ा कारण यह भी है कि अतीत के अनुभवों से सबक लेते हुए वाम दलों के नेताओं को यह समझ में आ गया है कि भारतीय राजनीति में उनका वर्ग संघर्ष आपस में मिल कर रहने से ही आगे बढ़ सकता है। इसी सत्य के साथ वाममोर्चा ने देश के तीन राज्यों – बंगाल, त्रिपुरा और कलर में लम्बे समय तक सत्ता में बने रहने का लाभ भी लिया है।
केंद्र की सत्ता में गठबंधन की राजनीति कर पूरे पांच साल तक सत्ता में बने रहने का पहला रिकॉर्ड कांग्रेस के प्रधान मंत्री पी. वी. नरसिम्ह राव ने बनाया। याद हो कि 1991 में जब राजीव गाँधी की हत्या के बाद कांग्रेस सत्ता में आई थी तब उसने नरसिम्ह राव के नेतृत्व में अल्पमत की सरकार बनाई थी लेकिन बाद में झारखण्ड मुक्ति मोर्चा समेत कई छोटे-बड़े दलों के समर्थन से सरकार बहुमत में आ गई थी। इसी दौरान बहुचर्चित झामुमो सांसद रिश्वत काण्ड भी सामने आया था। इसके पांच साल बाद 1996 में जब कांग्रेस को चुनाव में हार का सामना करना पड़ा था तब पहले भाजपा ने अटल बिहारी के नेतृत्व में सरकार बनाई थी लेकिन यह सरकार बहुमत साबित न कर पाने के कारण तेरह दिन बाद ही गिर गई थी।
इसके बाद दो किस्तों में पहले एच.डी. देवेगोड़ा और बाद में इंद्र कुमार गुजराल के नेतृत्व में कांग्रेस और भाजपा से बराबर की दूरी बनाए रखने के मकसद से केंद्र में संयुक्त मोर्चा की सरकार बनी लेकिन गठबंधन के ये प्रयोग भी सिरे नहीं लग सके।
नतीजा दो साल बाद फिर लोक सभा का चुनाव हुआ और अटल बिहारी वाजपाई के नेतृत्व में भाजपा सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभर कर सामने आई लेकिन इस पार्टी के पास सरकार बनाने लायक बहुमत नहीं था तब कांग्रेस से अलग हुई ममता बनर्जी की टी एमसी, अन्ना द्रमुक, शिव सेना, अकाली दल, तेलुगु देशम पार्टी, असम गण परिषद समेत अनेक छोटी-बड़ी पार्टियों के सहयोग से बनी गठबंधन की यह सरकार भी सबको खुश न रख पाने के चलते अधबीच ही एक वोट के अंतर से गिर गई।
तब तक राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन नामक यह गठबंधन एक काम चलाऊ समझौता ही था लेकिन 1999 में जब एक बार फिर लोक सभा के चुनाव की नौबत आई तब इस गठबंधन ने मिलकर चुनाव लड़ा और बहुमत के साथ सरकार में वापसी की और इस तरह नरसिम्ह राव के बाद अटल बिहारी बाजपाई को दूसरी बार गठबंधन की सरकार पांच साल तक चलाने का गौरव हासिल हुआ। 1977 से लेकर 1999 तक ऐसे कई मौकों पर देश में गठबंधन की सरकारें बनी ऐसा ही एक मौका वो भी था जब 1989 में कांग्रेस के चुनाव हारने पर विश्व नाथ प्रताप सिंह के नेतृत्व में दूसरी गैर कांग्रेस सरकार का गठन हुआ था। इस सरकार को राष्ट्रीय मोर्चा सरकार का नाम दिया गया था क्योंकि यह सरकार कांग्रेस को सत्ता से दूर रखने के उद्देश्य से गठित की गई थी।
यह देश की पहली ऐसी सरकार थी जिसको एक तरफ लेफ्ट और दूसरी तरफ भाजपा का समर्थन मिला हुआ था। संभवतः 1967-69 में देश के कुछ राज्यों में किए गए संयुक्त विधायक दल सरकारों के कांग्रेस को सत्ता से दूर रखने के प्रयोग के बाद यह दूसरी बार हुआ कि केंद्र में कांग्रेस के खिलाफ सारे दल एक हुए।
इक्कीसवी सदी के दूसरे दशक का उत्तरार्ध आते-आते भारतीय राजनीति की चैपड़ के पासे पलट चुके हैं। उन्नीसवीं सदी के सातवें दशक के मध्य में जिस गैर कांग्रेस वाद के नाम पर तमाम तत्कालीन विपक्षी पार्टियां संयुक्त विधायक दल के रूप में एकजुट हुई थी आज वो सभी पार्टियां सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी के खिलाफ एकजुट होने की कोशिश में हैं। अब कांग्रेस इन पार्टियों के साथ है तब ये पार्टियां कांग्रेस के खिलाफ थीं। हालात के साथ मिजाज भी बदले हैं और मिजाज बदलने में सबसे आगे भी वही पार्टी है जिसके हाथ में आज देश और देश के ज्यादातर राज्यों की सत्ता है।
आज भाजपा क्षेत्रीय दलों से अपनी शर्तों के मुताबिक समझौता करने की पक्षधर है जबकि एक जमाना ऐसा भी था जब भाजपा को इन पार्टियों की शर्तों पर समझौता करना पड़ता था। आज भाजपा की भी वही स्थिति हो गई है जो कभी कांग्रेस की हुआ करती थी क्योंकि अब भाजपा को इन पार्टियों की कम, इन पार्टियों को भाजपा की ज्यादा जरूरत है। शायद इसी वजह से भाजपा के नेतृत्व वाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन यानी एनडीए के तेलुगु देशम पार्टी, शिव सेना और अकाली दल जैसे घटक दलों की नाराजगी खुल कर सामने आ रही है। कहने का मतलब यह है कि हमारी राजनीति में गठबंधन वैचारिक आधार पर नहीं बल्कि वक्त की जरूरत के हिसाब से होते रहे हैं और किसी भी एक पक्ष की जरूरत न रह जाने पर ऐसे गठबन्धनों की कोई जरूरत नहीं रह जाती, लिहाजा गठबंधन की राजनीति, राजनीतिक गठबंधन में बदल जाती है ।
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