
— डॉ पंकज अग्रवाल
संजीव एक आइसक्रीम का व्यापारी है। इस कोरोना काल में उसका पूरा व्यापार बिलकुल चौपट हो गया। इसी चिंता में उसका वजन भी बहुत बढ़ गया। जब उसे अत्यधिक थकान एवं कमजोरी लगने लगी तब उसने डॉक्टर से संपर्क किया। उनकी सलाह के अनुसार ब्लड शुगर की जांच कराने पर वह 525 मिग्रा% निकली। संजीव के लिए इस रिपोर्ट पर विश्वास करना संभव नहीं हुआ क्योंकि लॉक डाउन के पूर्व उसकी यही जांच बिलकुल सामान्य आयी थी। उसने दलील दी, “मैं तो मीठा बिलकुल नहीं खाता, फिर मुझे डाइबिटीज कैसे हो सकती है?” आइये उसकी शंका का समाधान खोजते हैं।
ब्लड शुगर = भोजन से प्राप्त होने वाली शुगर – शरीर की गतिविधियों में प्रयुक्त होने वाली शुगर
हमारे द्वारा ग्रहण किया गया मीठा, खट्टा, कड़वा अथवा फीका किसी भी प्रकार का भोजन, शरीर में पहुंचकर ग्लूकोज में ही बदल दिया जाता है। वास्तव में, यह ग्लूकोज ही हमारे शरीर की सभी गतिविधियों को चलाने वाला ईधन है। जब कभी भी भोजन से प्राप्त होने वाली इस शुगर की मात्रा, हमारी शारीरिक गतिविधियों में प्रयुक्त होने वाली शुगर से अधिक हो जाती है, वह वजन को बढाती हुई ब्लड शुगर को बढ़ाने लगती है। इसके विपरीत, जब कभी हम शारीरिक परिश्रम को बढ़ाते हैं, यब वह शुगर को ईधन के रूप में प्रयुक्त करता हुआ ब्लड शुगर को घटाता जाता है। परिश्रम को लम्बे समय तक करते रहने पर वह शुगर के साथ-साथ शरीर में संगृहित वसा (चर्बी) को भी प्रयोग में लाता हुआ वजन घटाने में भी मदद करता है।
बढ़ी हुई शुगर (डाइबिटीज) का प्रमुख कारण – बढ़ा हुआ वजन
ध्यान रहे, घी-तेल, चिकनाई युक्त भोजन वास्तव में चीनी से भी अधिक तीव्रता से वजन को बढ़ाते हैं। यह बढ़ा हुआ वजन ही ब्लड शुगर के बढ़ने का प्रमुख कारण बनता है। वास्तव में चीनी की तुलना में वसा (fat) से लगभग ढाई गुना अधिक कैलोरी मिलती है। यही वसा, इन्सुलिन के प्रभाव को भी कम कर देता है जो ब्लड शुगर को नियंत्रण में रखती है। इस प्रकार, अधिक कैलोरी युक्त होने एवं इन्सुलिन को निष्क्रिय बना देने के कारण वसा युक्त भोजन, डाइबिटीज की सम्भावना को अत्यधिक बढ़ा देता है।
संजीव की समझ में आने लगा कि वह मीठा तो बिलकुल नहीं खाता परन्तु उसके भोजन में परांठे, तली हुई नमकीन, दाल में तड़का एवं अधिक तेल एवं मसाले युक्त सब्जी की बहुतायत रहती है। लॉक डाउन के समय में उसकी शारीरिक गतिविधियां भी बंद रहीं एवं घर पर तरह-तरह के घी-तेल युक्त व्यंजन भी खूब बने। वह समझ गया कि उसके वजन बढ़ने एवं डाइबिटीज के कारण भी यही रहे होंगें। उसने डॉक्टर से कहा कि वह उसको डाइबिटीज का सबसे अच्छा इलाज दें।
संजीव की अत्यधिक बढ़ी शुगर देखकर डॉक्टर ने उसको कुछ समय के लिए इन्सुलिन लेने के लिए कहा। उन्होंने कहा कि इससे आरम्भ में ब्लड शुगर को तीव्रता से घटाने में मदद करेगी जिससे शुगर के दुष्प्रभावों से बचा जा सके। परन्तु संजीव के परिवार के लोग इन्सुलिन के लिए बिलकुल भी तैयार नहीं हुए। उनका कहना था कि अभी-अभी पता लगी शुगर के लिए सीधे-सीधे इन्सुलिन पर कूद जाना कहाँ की समझदारी होगी? कुछ समय तो खान-पान के नियंत्रण एवं दवा की गोलियों का प्रभाव देख लेना चाहिए। यदि इससे काम नहीं चलेगा तो इन्सुलिन के लिए भी सोच लेंगें।
आइये, संजीव के घर वालों की इस शंका के निवारण का प्रयास करते हैं।

अत्यधिक बढ़ी हुई शुगर, इन्सुलिन बनाने वाले पैंक्रियास के लिए विष के समान
डॉक्टर ने समझाने का प्रयत्न किया कि सामान्य परिस्थितियों में जैसे-जैसे ब्लड शुगर की मात्रा बढ़ती जाती है, पैंक्रियास उतनी अधिक मात्रा में इन्सुलिन उत्पन्न करता जाता है। यह इन्सुलिन, ब्लड शुगर को दोबारा सामान्य सीमा में ले आती है। इसके विपरीत, अत्यधिक बढ़ी हुई शुगर, पैंक्रियास में इन्सुलिन बनने की क्षमता को ही समाप्त कर देती है। इस प्रक्रिया को glucotoxicity कहते हैं। ऐसी स्थिति में दवा की अनेक गोलियां मिलकर भी पैंक्रियास से पर्याप्त मात्रा में इन्सुलिन नहीं निकाल पातीं। इसीलिए ऐसी परिस्थिति में बाहर से इन्सुलिन के इंजेक्शन लेने की राय दी जाती है जो इस बढ़ी हुई शुगर को घटा सके। शुगर के सामान्य स्तर के निकट आते ही पैंक्रियास में इन्सुलिन बनाने की क्षमता पुनः उत्पन्न हो जाती है। अब दवाएं भी दोबारा कार्य करने लगती हैं। इसी उद्देश्य के कारण, अत्यधिक रूप से अनियंत्रित डाइबिटीज में कुछ समय के लिए इन्सुलिन लेने की राय दी जाती है।
संजीव को अपने व्यापार की घटना ध्यान आने लगी। डिपो में माल ढोने वाले टेम्पो के स्टार्ट न होने पर उसके नौकर भी तो यही करते हैं। चार मजदूर मिलकर भी माल से लदा टेम्पो ढकेल नहीं पाते परन्तु माल का बोझ कम करते ही केवल दो ही मजदूर उसी टेम्पो को ढकेल कर स्टार्ट करा लेते हैं। उसने डॉक्टर से कहा कि वह इन्सुलिन लेने को तैयार है।
यह बात संजीव की माँ बिलकुल अच्छी नहीं लगी। उन्होंने कहा कि उनका डॉक्टर भी उन्हें दस साल से इन्सुलिन लेने की सलाह दे रहा था परन्तु वह आठ सालों तक दवाओं से ही काम चलाती रहीं। वो तो जब उन्हें फालिज पड़ा तब डॉक्टरों ने बिना किसी से पूछे उन्हें इन्सुलिन लगा दी और तभी से वह इन्सुलिन पर ‘डिपेंडेंट’ हो गयीं। इसी इन्सुलिन के कारण उनकी आँख एवं गुर्दे भी खराब हो गए।
आइये, संजीव की माँ की शंका का समाधान करने का प्रयास करते हैं।

लम्बे समय तक बढ़ी हुई ब्लड शुगर, शरीर के लिए दीमक के समान
डॉक्टर ने पुनः समझाने का प्रयास किया। उन्होंने कहा कि जिस शुगर के बिना शरीर का कोई भी काम नहीं चलता, अनियंत्रित रूप से बढ़ी रहने पर वही शुगर, शरीर को भीतर ही भीतर क्षति पहुंचाती रहती है। यह सब हमारी जानकारी के बिना ही शरीर के भीतर चलता रहता है एवं आरम्भ में इस क्षति का कोई भी लक्षण बाहर उत्पन्न नहीं होता। अधिकांश रोगी इस नुक्सान को तब पहचान पाते हैं जब वह शरीर के किसी अंग को बिलकुल बर्बाद कर देती है। ऐसे में उनके लक्षण किसी इमरजेंसी (जैसे दिल का दौरा, फ़ालिज, पैरों में गैंग्रीन या किडनी के फेल होने) के रूप में प्रकट होते हैं। ध्यान रहे, इस अवस्था में रोग को पूर्णरूप से ठीक किया जा पाना बिलकुल भी संभव नहीं होता। ऐसे में रोगी किसी भी इलाज से हमेशा असंतुष्ट ही रहता है क्योंकि उसकी आशा के विपरीत इन सभी रोगों में केवल कामचलाऊ लाभ ही मिल पाता है।
संजीव सोच रहा था कि डाइबिटीज तो वास्तव में शरीर की दीमक के समान ही हुई। जैसे ऊपर से दिखे बिना ही दीमक लकड़ी को खोखला करती है वैसे ही डाइबिटीज शरीर को। जब फर्नीचर के टूट जाने पर वह बढ़ई से पूरी तरह ठीक नहीं हो पाता तब भला शरीर भी किसी दवा से किस प्रकार पूरी तरह ठीक हो सकेगा।
क्या डाइबिटीज के साथ स्वस्थ रहना संभव है?
डॉक्टर ने संजीव को डाइबिटीज को नियंत्रण में रखने की महत्ता समझाने का प्रयास जारी रखा। उन्होंने संजीव को UKPDS नाम के एक अध्ययन के विषय में बताया जिसमें भलीभांति नियंत्रित ब्लड शुगर वाले व्यक्तियों की तुलना अनियंत्रित ब्लड शुगर वाले व्यक्तियों से की गयी थी। उन्होंने बताया कि शुगर को नियंत्रण में रखने वाले व्यक्तियों में अंधेपन एवं किडनी फेल होने की घटनाओं में काफी कमी देखी गयी। इसी प्रकार बच्चों में होने वाली टाइप वन डाइबिटीज में भी DCCT अध्ययन में ऐसे ही निष्कर्ष प्राप्त हुए। इन्हीं क्रांतिकारी अध्ययनों के बाद डाइबिटीज के प्रत्येक रोगी को शुगर को भलीभांति नियंत्रण में रखने के सलाह दी जाती है।
संजीव को अब डाइबिटीज एक खुली किताब लगने लगी। वह समझ गया कि शरीर को डाइबिटीज से होने वाले नुकसानों से बचाया भी जा सकता है। वह समझ गया कि शरीर की सुरक्षित रखने के लिए उसे ब्लड शुगर को पूर्णरूप से नियंत्रण में रखना होगा। उसने डॉक्टर से कहा कि वह उनकी सलाह मानने को बिलकुल तैयार है पर डॉक्टर किसी प्रकार से भी उसकी माँ की आँख और गुर्दे को भी ठीक कर दे।
आपके लिए सन्देश – काल करे सो आज कर
डॉक्टर ने संजीव को अलग ले जाकर समझाया कि UKPDS एवं DCCT के परिणामों से उत्साहित होकर और भी अनेकों अध्ययन इसी आशा से किये गए कि डाइबिटीज को किसी भी प्रकार नियंत्रित करके, शरीर के विभिन्न अंगों पर पड़ चुके दुष्प्रभावों को वापस सामान्य बनाया जा सके। परन्तु आशा के विपरीत इनमें लाभ के स्थान पर कोई न कोई हानि ही हाथ लगी। इनमें पाया गया कि लम्बे समय तक अनियंत्रित रही डाइबिटीज को अनेकों दवाओं एवं इन्सुलिन के द्वारा जल्दी-जल्दी जबरदस्ती नियंत्रण में लाने की होड़ को शरीर सहन नहीं कर पाता। इस प्रयास में अक्सर ब्लड शुगर अत्यधिक कम हो जाती है (hypoglycemia) जो मृत्यु तक की सम्भावना को बढ़ा देती है। इससे निष्कर्ष यह निकाला गया कि डाइबिटीज के नियंत्रण से मिल सकने वाला आजीवन स्वास्थ्यलाभ तभी मिलता है जब इसे आरम्भ से ही प्राप्त किया जाये। डाइबिटीज होने के प्रारंभिक वर्षों में इसका ध्यान न रखने से जब शरीर के अंगों को नुक्सान पहुंच चुका हो तब इसे जबरदस्ती नियंत्रण में लाने का प्रयास शरीर के लिए हानिकारक सिद्ध होता है। उन्होंने संजीव को समझाया कि उसकी माँ के साथ अब अधिक जोश में आना उचित नहीं। वह स्वयं अभी से अपना पूरा ध्यान रखें एवं माँ के जैसी स्थिति में आने से बचे, यही उसके लिए बेहतर होगा।
संजीव को यह बात और भी अधिक महत्वपूर्ण लगी। उसे अपने पिता का ध्यान आया जो कहते थे कि किसी बच्चे के भविष्य को सँवारने के लिए उसे आरम्भ से ही अनुशासन में रखना पड़ता है। उसने सोचा कि डाइबिटीज भी किसी शिशु के ही समान है जिसे स्वस्थ रहने के लिए आरम्भ से ही नियंत्रण में रखना होगा। उसके पिता भी तो यही कहते थे, ‘काल करे सो आज कर’।
संजीव की माँ भी मन ही मन शुगर को आगे से नियंत्रण में रखने का निश्चय कर रहीं थीं। परन्तु उनका आज किया गया निश्चय एक पुराने गीत की याद दिला रहा था, ‘सब कुछ लुटा के होश में आये तो क्या किया’।
डॉ पंकज अग्रवाल गाजियाबाद के बेहतरीन डायबिटीजोलॉजिस्ट में से एक हैं। शास्त्री नगर गाजियाबाद में स्थित उनका क्लिनिक हॉर्मोन केयर एंड रिसर्च सेंटर उत्कृष्ट रोगी देखभाल प्रदान करने के लिए जाना जाता है।
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