
डॉ गुलरेज़ शेख
नेताजी का वह नारा “तुम मुझे ख़ून दो, मैं तुम्हें आज़ादी दूँगा” को नेताजी ने तो सत्य सिद्ध कर दिखाया पर बदले में हमने उन्हें क्या दिया “धोखा” “श्रम शिविर” “परिवार की जासूसी”?
प्रतिवर्ष नेताजी की जयन्ती पर उनकी प्रतिमा पर पुष्प अर्पित करते, नेताओं
को भाषण देते अदि दृश्य वर्ष प्रति वर्ष एक रीत की भाँति होते ही हैं। क्या यह उनके प्रति प्रेम है या रीती रिवाज़ या पाखंड या सभी का मिला जुला? इसका उत्तर हर पड़ने वाला अपने ज्ञान, क्षमता, राष्ट्रप्रेम आदि के अनुरूप दे सकता है।
जब हिन्दुस्तान स्वतन्त्र हो रहा था तब बोस सोवियत रूस के साईबेरियाई प्रान्त स्थित विश्व के सर्वाधिक ठण्डे शहर याकुत्स्क के श्रम शिविर क्र ४५ में बन्दी थे। ये वही श्रम शिविर थे जहाँ सोवियत तानाशाह जोसफ स्टालिन अपने राजनैतिक प्रतिद्वंदियों को अमानवीय परिस्थितियों में मरने तक श्रम करने हेतु छोड़ता था। पर प्रश्न उतपन्न होता है कि नेताजी वहाँ क्यों, कैसे और क्या किया स्वतंत्र भारत की सरकार ने उनके हेतु, जिसके सोवियत रूस से निकट संबंध थे। क्यों तो समझ आता है क्योंकि द्वितीय विश्व युद्ध में नेताजी मित्र देशों (अमेरिका-ब्रिटेन-फ्रांस-रूस) के विरुद्ध जर्मनी-जापान-इटली गठजोड़ के संग लड़े थे।
फिर उस झूँठ का क्या जिस पर आज भी लोग विश्वास करते हैं कि नेताजी की मृत्यु तो विमान दुर्घटना में हुई थी?
वास्तव में वह एक बड़ा झूँठ ही था जिसे जनता नेताजी को भुला बैठे इस हेतु गड़ा गया था।

नेताजी के बन्दी होने का बोध तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री जहवारलाल नेहरू को था पर नेताजी की रिहाई हेतु नेहरू सरकार द्वारा न केवल नकारात्मक व्यवहार प्रदर्शित किया गया अपितु इस दिशा में सकारात्मक प्रयास करने वाले श्री सत्यनारायण सिन्हा की न केवल उपेक्षा की गई अपितु उन्हें अप्रत्यक्ष शब्दों में चुप रहने हेतु धमकी भी दी गयी।

साथ ही तथाकथित विमान दुर्घटना के विषय में शाहनवाज़ कमेटी एवम् खोसला कमीशन की कार्यशैली भी प्रश्नों को उतपन्न करती है तथा बाद की मुकर्जी कमीशन द्वारा शाहनवाज़ कमेटी एवम् खोसला कमीशन के विमान दुर्घटना के दावे को ख़ारिज करने पर यू.पी.ए नेतृत्व वाली केन्द्र सरकार द्वारा मुकर्जी कमीशन की रिपोर्ट को अस्वीकार करना कई बड़े प्रश्नों को जन्म देता है।
जबकि पं नेहरू के लीपिक श्री श्यामलाल जैन की खोसला कमीशन के समक्ष गवाही जो श्री सत्यनारायण सिन्हा की गवाही के संग इस तथ्य की पुष्टि करती है कि तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री नेहरू को नेताजी के सोवियत रूस में बन्दी होने का पूर्ण बोध था।
साथ ही कुछ समय पूर्व अवर्गीकृत हुए दस्तावेज़ो से इस बात पर भी तथ्य स्थापित होता है कि नेताजी के परिवार की जासूसी उसी भाँति हुई जैसी एक आतंकवादी के परिवार की होती है, यहाँ तक कि उनकी जर्मन पत्नी द्वारा अपने भारतीय परिजनों को भेजे गए प्रत्येक पत्र को न केवल पड़ा गया अपितु उनकी छायाप्रति भी की गई। न
भाग्यवश वर्तमान केंद्र सरकार द्वारा नेताजी से संबंधित १०० से अधिक फाइलों का अवर्गीकरण करना एक प्रशंसनीय कृत्य है, जो राष्ट्रभक्तों में न्याय प्राप्ति के विश्वास को स्थापित करेगा। परन्तु सरकार से परे हम देशवासी जो आज के स्वतन्त्र भारत में सांस ले रहे हैं, उस भारत की स्वतन्त्रता हेतु अपना सर्वस्व न्योछावार करने वाले नेताजी सुभाष चन्द्र बोस की जयंती पर नेताजी को न्यायप्राप्त कराने हेतु प्रण लें। यही उस राष्ट्रभक्त को सही श्रद्धांजलि होगी।
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